-दिनेश ठाकुर
खामोश गाजीपुरी का शेर है- 'उम्र जलवों में बसर हो, ये जरूरी तो नहीं/ हर शबे-गम (गम की रात) की सहर (सबह) हो, ये जरूरी तो नहीं।' इसी तर्ज पर कहा जा सकता है कि 'स्त्री' (2018) के रूप में ठीक-ठाक-सी हॉरर फिल्म बनाने वाले दूसरी फिल्म भी वैसी ही बनाएं, ये जरूरी तो नहीं। दिनेश विजन 'स्त्री' के निर्माता थे। शुक्रवार को आई 'रूही' के निर्माता भी वही हैं। किसी फिल्म में सिर्फ निर्माता के नाम से कोई बात पैदा नहीं होती, 'रूही' इसका एक और नमूना है। इसमें शक नहीं कि जो कहानी चुनी गई थी, उसमें ठीक-ठाक हॉरर-कॉमेडी की संभावनाएं थीं। लेकिन हार्दिक मेहता के ढीले-ढाले निर्देशन ने इन संभावनाओं पर पानी फेर दिया। रही-सही कसर कमजोर पटकथा ने पूरी कर दी। न इसका हॉरर किसी तरह का डर पैदा करता है, न कॉमेडी हंसा पाती है। बेसिर-पैर की घटनाओं से इन्हें रचने वालों पर जरूर हंसा जा सकता है।
स्मार्ट फोन के जमाने में अजीबो-गरीब प्रथाएं
'रूही' की कहानी बुंदेलखंड के किसी काल्पनिक इलाके की है। वहां स्मार्ट फोन के इस जमाने में भी अजीबो-गरीब प्रथाएं चल रही हैं। वहां 'पकड़ुआ शादियां' होती हैं। यानी किसी भी लड़की का अपहरण कर उसकी किसी से भी शादी करा दी जाती है। इलाके में 'मुडिय़ापैरी' (उलटे पैर वाली चुड़ैल) की भी चर्चा चलती रहती है। राजकुमार राव इसी इलाके के लोकल अखबार में क्राइम रिपोर्टर हैं और एक्स्ट्रा कमाई के लिए अपने दोस्त वरुण शर्मा के साथ खुद भी 'क्राइम' कर लेते हैं। धन के लालच में एक बदमाश (मानव विज) के लिए वह दूसरे गांव की लड़की (जाह्नवी कपूर) का अपहरण करते हैं। वजह वही है कि इसकी किसी से 'पकड़ुआ शादी' करवाने का प्लान है। किन्हीं कारणों से शादी कुछ दिन टल जाती है। जाह्नवी को एक खंडहरनुमा इमारत में छिपाकर रखा जाता है। इसी दौरान पता चलता है कि जाह्नवी 'मुडिय़ापैरी' हैं। उन्हें लोगों को डराने के दौरे पडऩे लगते हैं। जब दौरे नहीं पड़ते तो मोहतरमा फड़कते हुए नाच-गानों से मनोरंजन भी करने लगती हैं (यह दूसरी बात है कि दर्शकों का फिर भी कोई मनोरंजन नहीं हो पाता)। आगे हद यह कि राजकुमार राव और वरुण शर्मा एक साथ इस 'मुडिय़ापैरी' पर फिदा हो जाते हैं। ज्ञानियों से दुरुस्त फरमाया है कि मोहब्बत में आदमी अंधा हो जाता है। वह चुड़ैल को भी दिल दे सकता है। एक हसीना दो दीवाने की घिसी-पिटी पटरी पर रेंगती कहानी जैसे-तैसे क्लाइमैक्स तक पहुंचती है।
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तर्कों की खूब धज्जियां उड़ाई गईं
फिल्म में तर्कों की खूब धज्जियां उड़ाई गई हैं। जो कहीं नहीं हुआ होगा, उसे नमक-मिर्च लगाकर दिखाने की कोशिश की गई, लेकिन जायका फिर भी पैदा नहीं हो पाया। फोटोग्राफी जरूर अच्छी है। दूसरे तकनीकी तामझाम पर भी मेहनत की गई है। इतनी मेहनत पटकथा और निर्देशन पर की जाती, तो शायद फिल्म में वह बात पैदा हो जाती, जिसके बगैर यह फीकी-फीकी लगती है। राजकुमार राव अच्छे एक्टर हैं, लेकिन अगर वह इसी तरह की फिल्मों में अपना हुनर और ऊर्जा खर्च करते रहे, तो मामला गड़बड़ा सकता है। जाह्नवी कपूर के लिए कुछ खास करने को नहीं था। उन्होंने कोशिश भी नहीं की। एक्टिंग के साथ-साथ उन्हें अपना उच्चारण सुधारने पर ध्यान देना चाहिए। सिर्फ फड़कते हुए नाच-गानों से बात नहीं बनेगी। मानव विज और वरुण शर्मा ने तबीयत से ओवर एक्टिंग की है।
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नाच-गाने सिर्फ खानापूर्ति के लिए
बैकग्राउंड संगीत अच्छा है। नाच-गाने भर्ती के हैं। ये पहले से लडख़ड़ा रही कहानी को और झटके दे जाते हैं। 'स्त्री' का एक जुमला खूब चला था- 'ओ स्त्री कल आना।' इसी तर्ज पर 'रूही' देखने के बाद कहा जा सकता है- 'ओ रूही फिर कभी मत आना' (इस बार झेल लिया, यही काफी है)।
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० फिल्म : रूही
० रेटिंग : 2/5
० अवधि : 2.14 घंटे
० निर्देशक : हार्दिक मेहता
० लेखन : मृगदीप सिंह लाम्बा, गौतम मेहरा
० फोटोग्राफी : अमलेंदु चौधरी
० संगीत : सचिन-जिगर, केतन सोढा
० कलाकार : राजकुमार राव, जाह्नवी कपूर, वरुण शर्मा, मानव विज, एलेक्स ओ नील, सरिता जोशी, सुमित गुलाटी, अनुराग अरोड़ा आदि।
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