Monday, November 30, 2020

Movie Review 'Peninsula' : न तर्क और न भावनाएं, इस बार भटक गई 'ट्रेन'

खामोश गाजीपुरी की खासी लोकप्रिय गजल है- 'उम्र जलवों में बसर हो ये जरूरी तो नहीं/ हर शबे-गम की सहर हो ये जरूरी तो नहीं।' दक्षिण कोरिया (South Korea) के फिल्मकार यिओन सेंग-हो (Film MakerYuon Seng-Ho) की 'ट्रेन टू बुसान' (Train to Busan) का सीक्वल 'पेनिनसुला' (Film Peninsula) देखकर इसी तर्ज पर कहा जा सकता है- हर सीक्वल में असर हो ये जरूरी तो नहीं। चार साल पहले आई 'ट्रेन टू बुसान' जितनी चुस्त-दुरुस्त थी, 'पेनिनसुला' उतनी ही बिखरी-बिखरी-सी फिल्म है। माना कि फुर्ती और बहादुरी दक्षिण कोरिया की संस्कृति के अहम गुण हैं, लेकिन पर्दे पर सिर्फ इनके प्रदर्शन से बात नहीं बनती। सलीके से बुनी गई घटनाएं होनी चाहिए, एक्शन में सहजता होनी चाहिए, थोड़ी-बहुत भावनाएं भी होनी चाहिए। 'पेनिनसुला' में इन सभी का अभाव है। बहुत कुछ दिखाने के चक्कर में भावनाओं और तर्कों के स्तर पर फिल्म कुछ भी नहीं दिखा पाती।

फिर जॉम्बीज से मुठभेड़
'ट्रेन टू बुसान' में दिखाया गया था कि दक्षिण कोरिया के एक बायोटेक प्लांट से केमिकल के रिसाव से लोग जॉम्बीज (Zombies) में बदलने लगते हैं। कोरोना (Corona) की तरह जॉम्बीज भी संक्रमण फैलाते हैं। बुसान जा रही एक ट्रेन इस संक्रमण की चपेट में आ जाती है। 'पेनिनसुला' में इस किस्से को आगे बढ़ाया गया है। जॉम्बीज के आतंक से दक्षिण कोरिया का एक टापू वीरान हो चुका है। कई कोरियाई जान बचाकर हांगकांग पहुंच गए हैं, जहां अमरीकी माफिया भी सक्रिय है। वीरान टापू पर पड़े डॉलर से भरे एक ट्रक को हांगकांग लाने के लिए यह माफिया एक कोरियाई टोली को रवाना करता है। वहां जॉम्बीज की फौज के साथ-साथ कुछ दूसरे लोगों ने भी इस टोली के लिए खतरे बिछा रखे हैं।

ढीली पटकथा ने पानी पेर दिया
सीक्वल के लिए कहानी का विस्तार तो ठीक-ठाक था, लेकिन निहायत ढीली पटकथा ने एक अच्छी फिल्म की संभावनाओं पर पानी फेर दिया। हर दूसरे सीन में वीभत्स जॉम्बीज उठकर भागने लगते हैं और ताबड़तोड़ गोलियां खाकर गिरते रहते हैं। जहां गोलियां नहीं चलतीं, वहां कोरियाई स्टाइल में उछलकूद वाली मारधाड़ शुरू हो जाती है। भारत के सिनेमाघरों में 'पेनिनसुला' को हिन्दी में डब कर भी उतारा गया है। डबिंग और भी हास्यास्पद है। बार-बार एक जैसे संवाद सुनने को मिलते हैं- 'ओह, जॉम्बीज.. भागो-भागो', 'भागने न पाए.. मारो-मारो', 'हेय, वो इधर ही आ रहे हैं.. देखो-देखो।' फिल्म में एक्शन के कई सीन कम्प्यूटर ग्राफिक्स से रचे गए हैं। ऐसे सीन देख कर हिन्दी फिल्में बनाने वाले गर्व महसूस कर सकते हैं कि हमारी कुछ फिल्मों में कम्प्यूटर से रचे गए सीन ज्यादा सहज और असरदार रहे हैं।

हांफते हुए क्लाइमैक्स तक
यिओन सेंग-हो दक्षिण कोरिया के भरोसेमंद फिल्मकारों में गिने जाते हैं। उनसे इतनी फुसफुसी फिल्म की उम्मीद नहीं थी। 'ट्रेन टू बुसान' में उन्होंने घटनाओं का सिलसिला इतना तेज और तार्किक रखा था कि फिल्म शुरू से आखिर तक दर्शकों को बांधे रखने में कामयाब रही थी। 'पेनिनसुला' की शुरुआत ही सुस्त है। जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है, लगता है कि अब कुछ होगा। कहानी हांफते हुए क्लाइमैक्स तक पहुंच जाती है, ऐसा कुछ नहीं होता, जो दिल छुए या नया तजुर्बा दे या इतनी तसल्ली ही दे दे कि देखने वालों ने रुपयों और समय की फिजूलखर्ची नहीं की।

-दिनेश ठाकुर



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