नई दिल्ली। चुनाव आयोग द्वारा बिहार में विधानसभा चुनाव के तारीखों की घोषणा के साथ ही सियासी हवा भी तेज हो गई है, लेकिन 2015 की तरह मतदाताओं का रुख उभरकर सामने आना अभी बाकी है। 5 साल पहले हालात कुछ और थे। इस बार कोरोना संकट की वजह से सियासी परिदृश्य कुछ और है। फिर विपक्ष इस बार अपना चेहरा भी तय नहीं कर पा रहा है। जबकि सत्ताधारी पार्टी का चेहरा तय है। इसी तरह कई और फैक्टर हैं जो अभी सियासी परिदृश्य को शेप देने में अहम भूमिका निभा सकते हैं।
आइए हम आपको बताते हैं कि बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में कौन से मुद्दे हावी होंगे। किन मुद्दापर किसकी है कितनी पकड़।
1. सीएम का चेहरा
2015 में विपक्ष ने चुनाव घोषणा से पहले ही नीतीश कुमार को सीएम का चेहरा घोषित कर दिया था। इस विपक्ष चुनावी चेहरा तय नहीं कर पा रहा है। इस बात को लेकर महागठबंधन में अभी तक सहमति नहीं बन पाई है। जबकि सत्ताधारी पार्टी बीजेपी, जेडीयू और एलजेपी इस बार सीएम नीतीश कुमार के नेतृत्व में मैदान में है। नीतीश कुमार के साथ खास बात यह है कि उनका विकल्प इस समय बिहार में कोई नहीं है। ये बात अलग है चिराग पासवान नीतीश के नेतृत्व को लेकर पूरी तरह से खुश नहीं हैं।
2. महागठबंधन का आकार
महागठबंधन में चुनावी चेहरा और सीटों शेयररिंग को लेकर बात बन नहीं पा रही है। माना जा रहा है कि आगामी 7 दिनों में विपक्षी गठबंधन का आकार व अन्य मुद्दों पर अपना रुख तय कर लेगा। उपेंद्र कुशवाहा, मुकेश सहनी और पप्पू यादव को संतोषजनक सीटें नहीं मिलीं तो ये नेता असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी के साथ तीसरो मोर्चा बना सकते हैं। अगर ऐसा हुआ तो ये खुद चुनाव भले ही न जीतें लेकिन महागठबंधन को कमजोर जरूर कर सकते हैं। एक ओपेनियम पोल में अनुमान लगाया गया है कि इस बार गैर एनडीए व गैर यूपीए को अच्छे वोट मिल सकते हैं।
3. चिराग का सियासी रुख
वैसे तो एनडीए गठबंधन में सबकुछ लगभग तय है लेकिन नीतीश कुमार के नेतृत्व को लेकर चिराग पासवान असमंजस में हैं। एनडीए गठबंधन के नेताओं में भी एलजेपी अध्यक्ष चिराग पासवान के रुख को लेकर चिंता है। एलजेपी नेताओं का यह भी कहना है कि वह चाहती है कि बीजेपी ज़्यादा सीटों पर चुनाव लड़े। साथ ही एलजेपी ने 143 सीटों पर अलग से चुनाव लड़ने के भी संकेत दे दिए हैं।
4. मोदी फैक्टर
पीएम नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में उभरकर सामने आए हैं तभी से हर विधानसभा उन्हें हार—जीत के लिए एक्स फैक्टर साबित हुए हैं। पीए अपने दम पर चुनाव को अपने पक्ष में कई बार करने में सफल भी रहे। कोराना कारण में रैली का स्वरूप बदल गया है। हालांकि इस बार भी वो बड़ी-बड़ी रैली कर रहे हैं। हालांकि 2015 में पीएम मोदी का जादू नहीं चला था, लेकिन इस बार इस बात की उम्मीद है कि बीजेपी के लिए पिछली बार से ज्यादा कारगर साबित होंगे।
5. तेजस्वी का रुख
आरजेडी प्रमुख लालू यादव की अनुपस्थिति में युवा नेता तेजस्वी यादव लोकसभा चुनाव की तरह बेअसर साबित होंगे या फिर विधानसभा में चुनाव में असर छोड़ पाएंगे, यह अभी तय नहीं है। इस बार तेजस्वी लालू की छवि से अलग हटकर चुनाव लड़ रहे हैं। हाल ही में उन्होंने लालू के राज में हुई गलतियों के लिए माफी भी प्रदेश की जनता से मांगी थी। लेकिन तेजस्वी के साथ सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वो महागठबंधन के अन्य सहयोगियों के साथ तालमेल भी तक नहीं बैठा पाए हैं। ले—देकर उनके पास मुस्लिम—यादव वोट है। इसके बावजूद अगर क्षेत्रीय पार्टियों के साथ तालमेल बैठने में सफल हुए तो वह चुनाव को नया मोड़ दे सकते हैं। इस लिहाज से उनके लिए उपेंद्र कुशवाहा, मुकेश सहनी और पप्पू यादव तुरुप का पत्ता साबित हो सकते हैं।
6. सुशासन और विकास
सीएम नीतीश कुमार को जहां बिहार में सुशासन बाबू माना जाता है वहीं पीएम मोदी को विकास पुरुषा। यानि एनडीए गठबंधन के पास चुनाव जीतने के लिए दो फैक्टर सबसे ज्यादा अहम साबित हो सकते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या सुशासन और विकास का मुद्दा पहले की तरह जिंदा है।
7. एनडीए के सामने परिणाम दोहराने की चुनौती
पिछले कुछ वर्षों में लोकसभा और विधानसभा चुनाव परिणाम में बहुत बड़ा फर्क दिखा है। जिन राज्यों में बीजेपी लोकसभा चुनाव में सफल रही उन राज्यों में विधानसभा चुनाव पिछड़ती दिखाई दी। इसलिए चर्चा इस बात की है कि लोकसभा की तरह विधानसभा चुनाव में भी एनडीए बढ़त बनाने में सफल होगी। या बिहार में एक बार नया ट्रेंड दिखेगा।
8. कोरोना वायरस फैक्टर
बिहार विधानसभा चुनाव में कोरोना वायरस का प्रभाव अहम फैक्टर साबित हो सकता है। कोविद—19 के कारण मतदान कम हो सकता है। ऐसे हालात में जो गठबंधन अपने वोटर को बूथ तक लाने में सफल होगा उसके पक्ष में परिणाम आने की संभावना बनी रहेगी। यानि इस बार बूथ मैनेजमेट अहम साबित होगा। कोरोना फैक्टर को अहम इसलिए भी माना जा रहा है कि लॉकडाउन के बाद लाखों की तादाद में मजदूर बिहार लौटे हैं। इस तबके में कोरोना की तैयारियों को लेकर नाराजगी है।
9. त्योहारी मौसम में चुनाव
बिहार में इस बार दहशहर, दीवाली और छठ के बीच चुनाव होंगे। इन त्याहारों में भारी भीड़ न उमड़े और चुनाव की तैयारियां भी चलती रही है, इसे मैनेज करना प्रशासन के लिए अपने आप में बहुत बड़ी चुनौती होगी। अगर स्थिति किन्हीं कारणों से बिगड़ी तो यह सत्ताधारी गठबंधन का खेल भी बिगाड़ सकता है।
10. सांप्रदायिक तनाव
त्योहार और पर्व के बीच sचुनाव होने की वजह से इस बात की आशंका जताई जा रही है कि एंटी सोशल एलीमेंट चुनाव में सांप्रदायिकता का कार्ड खेल सकते हैं। सोशल मीडिया पर हेट स्पीच पर कंट्रोल रखना भी आसान नहीं होता है। 2015 विधानसभा चुनाव में सबसे अधिक हेट स्पीच बिहार में ही दर्ज की गई थी।
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