-दिनेश ठाकुर
निदा फाजली ने दुरुस्त फरमाया था- 'कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता/ कहीं जमीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता।' ज्यादातर फिल्मकारों को ढंग की थीम नहीं मिलती और उन्हें बार-बार आजमाए गए फार्मूलों के सहारे फिल्मों का ढांचा खड़ा करना पड़ता है। कुछ फिल्मकार अच्छी थीम हाथ लगने के बाद भी उसे पर्दे पर सलीके से नहीं उतार पाते। 'टोरबाज' इसका ताजा नमूना है। निर्देशक गिरीश मलिक ने यहां वही गलतियां दोहराई हैं, जो सात साल पहले अपनी पहली फिल्म 'जल' में की थीं। उस फिल्म में उनका सारा ध्यान कच्छ के रण का माहौल रचने पर रहा। उन पहलुओं की उपेक्षा की गई, जो पर्दे पर कहानी को लय और रफ्तार देते हैं। 'टोरबाज' में भी वे अफगानिस्तान का माहौल पर्दे पर उतारने में इतना डूब गए कि न पटकथा पर ध्यान दे पाए और न निर्देशन की कमान सलीके से थाम पाए। बहुत कुछ दिखाने के चक्कर में 'टोरबाज' ऐसा कुछ नहीं दिखा पाती, जो दिल को छूता हो, नया तजुर्बा देता हो या याद रहने लायक हो।
अनाथ बच्चों की क्रिकेट टीम पर फोकस
विदेशी फौज और तालिबान के बीच दो दशक से चल रही जंग में तबाह हुए अफगानिस्तान के हालात पर कई फिल्में बन चुकी हैं। इनमें से ज्यादातर हॉलीवुड ने बनाईं, क्योंकि वहां के फिल्मकारों के लिए जंग भी रोमांच पैदा करने और अपनी फौज के गुणगान का जरिया है। निर्देशक कैथरिन बिगलो की 'जीरो डार्क थर्टी' में अमरीकी फौज की बहादुरी का प्रदर्शन करते हुए दिखाया गया कि किस तरह पाकिस्तान की मदद के बगैर अमरीका ने ओसामा बिन लादेन को उसके ठिकाने में घुसकर 'ठिकाने' लगाया। 'टोरबाज' फौज और तालिबान की लड़ाई के बजाय अनाथ अफगानी बच्चों पर फोकस करती है। जंग में परिजनों को खो चुके ये बच्चे शरणार्थी शिविर में दिन काट रहे हैं। कभी भारतीय फौज में डॉक्टर रहा नासिर खान (संजय दत्त) इनमें से कुछ बच्चों की क्रिकेट टीम तैयार करने के अभियान में जुटता है। आत्मघाती हमलों के लिए इस्तेमाल किए जा रहे बच्चों का खेल के मैदान में उतरना तालिबान सरदार (राहुल देव) और उसके गुर्गों के लिए आंख की किरकिरी बन जाता है।
यह भी पढ़ें : कोरोना मरीजों की 6 महीने सेवा करने वाली एक्ट्रेस हुईं लकवे का शिकार, अस्पताल में भर्ती
बेहद उबाऊ प्रसंग
बेशक कहानी में एक अच्छी फिल्म की गुंजाइश थी, लेकिन लचर पटकथा और उससे भी लचर घटनाओं ने 'टोरबाज' को कहीं का नहीं छोड़ा। 'लगान' में गांव वालों का क्रिकेट सीखना जितना दिलचस्प था, यहां बच्चों के क्रिकेट सीखने के प्रसंग उतने ही उबाऊ हैं। संजय दत्त पूरी फिल्म में अनमने और थके-थके-से लगते हैं। उनको छोड़ सभी कलाकारों से सिर्फ हाजिरी लगवाई गई है कि हां, हम भी हैं। जिन बच्चों को लेकर संजय दत्त क्रिकेट टीम बनाना चाहते हैं, उनमें हर बच्चा ओवर एक्टिंग की हद लांघता लगता है। निर्देशक का इन पर कोई नियंत्रण नजर नहीं आता। यानी फिर साबित हुआ कि बच्चों से एक्टिंग करवाना बच्चों का खेल नहीं है।
सिर्फ फोटोग्राफी शानदार
फिल्म इतनी सुस्त है कि झपकी लेने वाले कई बार आराम से झपकी ले सकते हैं। फोटोग्राफी के अलावा 'टोरबाज' में ऐसा कुछ नहीं है, जिसका जिक्र किया जाए। कैमरे ने अफगानिस्तान का माहौल जस का तस पर्दे पर उतारने का जो कमाल किया है, अगर वही कमाल दूसरे मोर्चे पर भी किया जाता, तो बात ही कुछ और होती।
० फिल्म - टोरबाज
० रेटिंग - 2/5
० अवधि - 2.13 घंटे
० निर्देशक - गिरीश मलिक
० लेखन- गिरीश मलिक, भारती जाखड़
० फोटोग्राफी - हीरू केसवानी
० संगीत - विक्रम घोष
० कलाकार - संजय दत्त, राहुल देव, नर्गिस फाखरी, प्रियंका वर्मा, राहुल मित्रा आदि।
from Patrika : India's Leading Hindi News Portal https://ift.tt/3qP4SK2