-दिनेश ठाकुर
फिल्म यूं शुरू होती है कि वॉशरूम में एक तरफ जिम सरभ ( Jim Sarbh ) हाथ धो रहे हैं, दूसरी तरफ अभिमन्यु सिंह ( Abhimanyu Singh ) हाथ के साथ मुंह भी धो रहे हैं। हाथ-मुंह धोकर अचानक दोनों तैश में एक-दूसरे की धुनाई करते हुए भिड़ जाते हैं। इनकी हाथापाई में एक वॉश बेसिन का आधा हिस्सा टूट कर बिखर जाता है। बाकी हिस्से को जिम सरभ उखाड़ कर अभिमन्यु के सिर पर दे मारते हैं। निर्देशक बिजॉय नाम्बियार ( Bejoy Nambiar ) इस सीन पर इतने मुदित-मोहित हुए कि फिल्म में आगे इसे दो बार और दिखाया गया। नाम्बियार के साथ दिक्कत यह है कि वे मारधाड़ के सीन तो बड़ी मेहनत के साथ रचते हैं, यही मेहनत पटकथा पर नहीं कर पाते। उनकी पिछली फिल्में 'शैतान', 'डेविड' और 'वजीर' की तरह 'तैश' भी इसी मोर्चे पर मात खाती है। नई कहानी आजकल की ज्यादातर फिल्मों में होती नहीं, कम से कम पटकथा तो ऐसी होनी चाहिए कि फिल्म दो-ढाई घंटे बांध कर रख सके। 'तैश' कई हिस्सों में इतनी बोझिल है कि देखने वालों को झपकियां आ सकती हैं।
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हद से ज्यादा नमक
शायद यह फिल्म के नाम का असर है कि इसके ज्यादातर कलाकार हमेशा तैश में बाहें चढ़ाए घूमते रहते हैं। पूरी फिल्म में खटका बना रहता है कि जाने कौन किसके साथ धोबी-पछाड़ शुरू कर दे। फिल्म के बहाव में मारधाड़ आटे में नमक के बराबर ही ठीक रहती है। बिजॉय नाम्बियार ने हर दूसरे सीन में हद से ज्यादा नमक डाल कर जायका बिगाड़ दिया। चूंकि उनके पास कोई तयशुदा कहानी नहीं थी, इसलिए फिल्म कभी मीरा नायर की 'मानसून वेडिंग' की पटरी पकड़ती है, तो कभी रामगोपाल वर्मा की गैंगवॉर फिल्मों 'कंपनी', 'सरकार', 'शिवा' वगैरह के मसालों के चक्कर काटने लगती है। यह बात समझ से परे है कि देशी लटके-झटके वाली इस फिल्म को उन्होंने लंदन जाकर क्यों फिल्माया। अगर यह मुम्बई या चंडीगढ़ में फिल्माई जाती, तो इसके हुलिए में ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। खर्चा बचता, जो इस कोरोना काल में बहुत जरूरी है।
फिल्म की कहानी
'तैश' ( Taish Movie ) का किस्सा इतना-सा है कि लंदन में बसे दो पंजाबी परिवारों के बीच किसी पुरानी खुन्नस को लेकर ठनी हुई है। एक परिवार पढ़े-लिखे लोगों का है, जबकि दूसरा अंडरवर्ल्ड से जुड़ा है। पहले वाले परिवार में एक शादी की तैयारियां चल रही हैं। इसी बीच इसका एक सदस्य (जिम सरभ) दूसरे परिवार के मुखिया (अभिमन्यु सिंह) का सिर फोड़ देता है। यहीं से खून-खराबे का सिलसिला शुरू होता है और दोनों तरफ किसी न किसी का राम नाम सत्य होता रहता है। आधे से ज्यादा कलाकारों को शहीद करने के बाद फिल्म लडख़ड़ाती हुई अंजाम तक पहुंचती है। क्लाइमैक्स में शायद बिजॉय नाम्बियार को रोहित शेट्टी की फिल्में याद आ गई होंगी। इसलिए उन्होंने लंदन की सड़कों पर कार और बाइक की चेज दिखा दी। फिर भी फिल्म में जान नहीं आ पाई।
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सितारों का अभिनय
हद से ज्यादा हिंसा के बीच पुलकित सम्राट ( Pulkit Samrat ) और कृति खरबंदा ( Kriti Kharbanda ), हर्षवर्धन राणे ( Harshvardhan Rane ) और संजीदा शेख ( Sanjeeda Sheikh ) के साथ-साथ अंकुर राठी और जोया मोरानी के प्रेम प्रसंग भी चलते रहते हैं। अव्वल तो इन प्रसंगों में गहराई का अभाव था, हिंसा ने इन्हें ज्यादा उभरने का मौका भी नहीं दिया। हर्षवर्धन राणे और जिम सरभ को मारधाड़ में खर्च किया गया, तो पुलकित सम्राट एक्टिंग के नाम पर बार-बार एक अंग्रेजी अपशब्द के सहारे तैश का इजहार करते रहे। कृति खरबंदा और संजीदा शेख सिर्फ सजावट के लिए हैं।
निर्देशन
तकनीकी रूप से फिल्म आला दर्जे की है। कुछ सीन हॉलीवुड फिल्मों की याद दिलाते हैं, लेकिन यह ऊपरी तड़क-भड़क है। जब फिल्म में पटकथा का हुलिया ही गड़बड़ाया हुआ हो, तो तकनीक से ज्यादा सहारे की उम्मीद बेमानी है। गड़बड़ की एक वजह यह भी हो सकती है कि बिजॉय नाम्बियार ने 'तैश' को वेब सीरीज के तौर पर तैयार किया। आधा-आधा घंटे की छह कडिय़ों को काट-छांट कर करीब सवा दो घंटे की फिल्म का रूप दे दिया गया। अगर सलीके से संपादन किया जाता, तो इसकी गैर-जरूरी लम्बाई को समेटा जा सकता था। लेकिन अब क्या हो सकता है? बंदूक से निकली गोली और कमान से छूटा तीर कभी वापस नहीं आते।
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