-दिनेश ठाकुर
निदा फाजली फरमा गए हैं- 'धूप में निकलो घटाओं में नहाकर देखो/ जिंदगी क्या है, किताबों को हटाकर देखो।' जोरहट (असम) के जादव मोलई पयेंग बरसों से यही कर रहे हैं। जिंदगी के 57 साल में उन्होंने किताबें कम, कुदरत की उन नेमतों को ज्यादा पढ़ा, जो बेशुमार खजाने की तरह जमीन पर बिखरी पड़ी हैं। उन्होंने जंगलों को छान-छानकर पढ़ा है, बीवी-बच्चों के बजाय वन्य जीवों के साथ ज्यादा वक्त बिताया है और ब्रह्मपुत्र नदी की लहरों को अपने हाथों की लकीरों की तरह पढ़ा है। उन्हें भारत का 'वन-मानुष' कहा जाता है। जंगलों और वन्य जीवों के प्रति समर्पण को लेकर उन्हें पद्मश्री से अलंकृत किया जा चुका है। इसी हस्ती से प्रेरित होकर दक्षिण के फिल्मकार प्रभु सोलोमन ने 'हाथी मेरे साथी' ( Hatthi Mere Saathi ) बनाई है, जिसे जनवरी में मकर संक्रांति के मौके पर सिनेमाघरों में उतारने की तैयारियां चल रही हैं।
हाथियों का वजूद भी खतरे में
राजेश खन्ना के सितारों की बुलंदी के दौर में जिस 'हाथी मेरे साथी' (1971) ने धूम मचाई थी, नई हमनाम फिल्म को उसे श्रद्धांजलि के तौर पर भी प्रचारित किया जा रहा है। इसमें 'वन-मानुष' का किरदार 'बाहुबली' ( Bhaubali Movie ) के भल्लालदेव यानी राणा दग्गुबाती ( Rana Daggubati ) ने अदा किया है। फिल्म हाथियों के साथ उनके आत्मीय रिश्तों की कहानी सुनाएगी। शेरों की तरह दुनियाभर में हाथियों का वजूद भी खतरे में है। इंसानों की बस्तियों के विस्तार से जंगल सिमटते जा रहे हैं और गजराज 'जाएं तो जाएं कहां' की उलझन में हैं। भारत में सबसे ज्यादा हाथी कर्नाटक (करीब छह हजार) और असम (5,719) में हैं। लेकिन 'हाथी मेरे साथी' की शूटिंग केरल और थाईलैंड के घने जंगलों में की गई है।
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जंगलों पर बनी फिल्में
हॉलीवुड में जंगलों की पृष्ठभूमि पर कई अच्छी फिल्में बनी हैं। रोनाल्ड शैनिन की 'टच द स्काई' ( Touch The Sky ) (1974) को वन्य जीवों पर प्रामाणिक दस्तावेज माना जाता है। यह फिल्म बनाने में उन्हें पांच साल लगे, क्योंकि इसे फिल्माने के लिए उन्होंने दक्षिण अफ्रीका, कांगो, युगांडा, कीनिया, तंजानिया, जाम्बिया, रोडेशिया के जंगल, तपते रेगिस्तान और जाने कितने पहाड़ों की खाक छानी थी। वाल्ट डिज्नी की 'ट्रू लाइफ एडवेंचर्स' भी उल्लेखनीय फिल्म है। इसके लिए 40 फोटोग्राफर वन्य जीवों की गतिविधियों को कैमरे में कैद करने के लिए अमरीका, कनाडा और अफ्रीका के कई जंगलों में घूमे। इस फिल्म में जंगल का सहज माहौल है, क्योंकि न तो किसी सीन की रिहर्सल की गई और न ही कोई सेट लगाया गया।
जागरुकता के लिए फिल्में
जंगलों और वन्य जीवों की फिल्मों का अलग रोमांच होता है। स्वच्छंद विचरते वन्य जीवों और रंग-बिरंगे पक्षियों वाले जंगल का सन्नाटा सिहरन पैदा करता है। चिडिय़ों की चहचहाहट, शेर की दहाड़, दूसरे वन्य जीवों की पदचाप और ऐसी ही जाने कितनी नैसर्गिक ध्वनियां इस सन्नाटे को तोड़ती रहती हैं। अच्छा बनाम बुरा जंगल की घटनाओं का आधार नहीं होता। वहां एक ही सिद्धांत लागू होता है कि जो ज्यादा ताकतवर है, वही ज्यादा दिन जिंदा रह सकता है। इंसान का दखल जंगल के सहज वातावरण को उसी तरह भंग कर रहा है, जिस तरह कभी-कभी किसी बाघ या बघेरे के शहरी आबादी में पहुंचने से यहां शांति छूमंतर होती है। लोगों को जागरूक करने के लिए जंगलों की पृष्ठभूमि पर सलीकेदार फिल्में बनाने का सिलसिला जारी रहना चाहिए।
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