70 और 80 के दशक की फ़िल्मों को आज भी लोग बेहद पसंद करते है। ये फ़िल्में आप पूरी फॅमिली के साथ बैठ कर देख सकते है और एक अच्छा फॅमिली टाइम भी स्पेंड हो जाता है। आज हम बात करेंगे 70-80 के दशक के सर्वश्रेष्ट फ़िल्मों में से एक की जिसका नाम है 'मंथन'। यह फिल्म साल 1976 में आयी और उसी साल उसे राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी मिला। देश से विदेश तक यह फिल्म काफी सराही गई।
फिल्म 'मंथन' को भारत के 5 लाख किसानों ने मिलकर प्रोड्यूस किया था और इस फिल्म में बड़े-बड़े स्टार्स ने काम किया था। 1976 में श्याम बेनेगल की आई इस फ़िल्म के पोस्टर में एक लाइन दिखती है, जो इससे पहले किसी फ़िल्म में नहीं देखी गई थी। इस लाइन में लिखा था ‘गुजरात के पांच लाख किसान पेश करते हैं - 'मंथन’ श्याम बेनेगल ने वर्ष 1976 में क्राउडसोर्सिंग का एक अद्भुत नमूना पेश करते हुए अपनी फ़िल्म को रिलीज़ किया था।
इस फ़िल्म के लिए गुजरात के पांच लाख किसानों ने 2-2 रूपए दिए थे और फ़िल्म के प्रोड्यूसर बने थे। दस लाख के बजट में बनी ये फ़िल्म भारत की पहली फिल्म थी जिसमें किसी भी प्रोडक्शन हाउस का पैसा नहीं लगा था। गुजरात को ऑपरेटिव मिल्क फेडरेशन के हर किसान ने 2-2 रूपए की डोनेशन दी थी।
बात उस दौर की थी जब देश में कांग्रेस के शासन के दौरान देश में इमरजेंसी लगा दी गई थी। विवादित माहौल के बीच श्याम बेनेगल ने अपनी इस फिल्म की स्क्रिप्ट पूरी की, जो श्वेत क्रांति पर आधारित थी। फिल्म के प्री प्रोडक्शन का काम पूरा हो चुका था। बस कमी थी तो प्रोड्यूसर की। कोई भी इस फिल्म में पैसा लगाने के लिए तैयार नहीं हो रहा था।
ऐसे में बेनेगल दुग्ध क्रांति के जनक कहे जाने वाले वर्गीज कुरियन से मिले और अपनी परेशानी साझा की। कुरियन ने उन्हें अमूल से जुड़े 5 लाख किसानो की मदद लेने का सुझाव दिया। और फिर क्या था श्याम बेनेगल की यह फिल्म देश की पहली ऐसी फिल्म साबित हुई, जिसमें देश के किसानों का पैसा लगा।
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फिल्म 'मंथन' किसानों और पशुपालकों के संघर्ष की कहानी बयां करती है। फिल्म में स्मिता पाटिल, ओम पुरी, गिरीश कर्नाड, नसीरुद्दीन शाह जैसे कलाकारों ने काम किया था। 'मंथन' को साल 1976 का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला। इस फिल्म को ना सिर्फ देश बल्कि विदेशों में भी खूब सराहना मिली। आज भी इसे देश के सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक माना जाता है। जब 1976 में यह फिल्म रिलीज हुई थी, तब गांवों से किसान ट्रक-ट्रैक्टर भर-भरकर फिल्म देखने गांव से शहर को पहुंचे थे।
किसान हमारे देश की जान हैं। वह किसान ही हैं, जो तड़के 3-4 बजे अपनी नींद खराब करते हैं ताकि हम और आप अच्छा खाना खा सके। यह अलग बात है कि तमाम वादों और घोषणाओं के बीच यही किसान या तो खेती छोड़ रहे हैं या आत्महत्या कर रहे हैं। किसानों का योगदान सिर्फ खेतों तक सीमित नहीं है। सिनेमा की दुनिया के ऊपर भी किसानों का ऐसा कर्ज है, जिसे कोई चाहकर भी पूरा नहीं कर सकता।
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